Friday, 20 January 2012


आतंकवाद 

भारत बहुत समय से आतंकवाद का शिकार रहा है। आतंकवाद का मुख्य हथियार डर होता है। हिंसा के माध्यम से वह केवल उन लोगो में ही डर पैदा नहीं करता जिनके मित्र या सम्बन्धी मारे जाते हैं, बल्कि आतंक की लहरें काफी दूर-दूर तक जाती हैं।
दुनिया में एक आतंकवादी को मनोवैज्ञानिक रूप से अस्थिर या विकार ग्रस्त समझा जाता है। उसके व्यक्तित्व की यह रोगग्रस्त स्थिति ही उसे आतंकवाद की ओर ले जाती है। धर्म या मज़हब की विचारधारा इसमें एक महत्वपूर्ण योगदान देती है। यह किसी वैज्ञानिक चिंतन प्रणाली का परिणाम नहीं होती है। इसकी मुख्य शक्ति आस्था है, इसलिए इसे किसी तर्क से ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। यह विचारधाराओं में सबसे सशक्त विचारधार होती है।
व्यक्तिगत तौर पर देखा जाये तो एक व्यक्ति के मन में शिकायत या वंचित होने की भावना ही महत्वपूर्ण कारक होती है। लेकिन इन भावनाओं से व्यक्तियों को बहकाने में धर्म महत्वपूर्ण मानकों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। धर्म के साथ-साथ अगर जाति और क्षेत्र की भावना भी जुड़ जाती है, तो यह आतंक का एक खतरनाक स्रोत बनता है।
कश्मीर में हाल के दशकों में आतंकवाद के पीछे भी दोनों कारक हैं। धर्म तो है ही, कश्मीर जाती की अलग पहचान का मुद्दा भी उसमें शामिल हो चुका है।
किसी भी क्षेत्र में आतंकवादी गतिविधि के आरम्भ में प्रशासनिक या स्थानीय कारण हो सकते हैं। हो सकता है किसी क्षेत्र में कुछ लोगो ने असंवेदनशील प्रशासनिक व्यवस्था के विरुध बगावत करने के लिए हथियार उठाया  हो। या उसकी जड़ में छोटा-मोटा लाभ या लोभ काम करता हो। व्यक्तिगत तौर पर एक सामान्य आतंकवादी की शिकायतें भी बहुत छोटी-छोटी होती हैं। फिर उसे यह समझाया जाता है कि यह छोटी समस्याएँ दरअसल एक बड़ी समस्या के छोटे आयाम हैं। धर्म और जाती अक्सर वह दायरा प्रदान करती हैं जिनके भीतर उन बड़ी समस्याओं को  देखा जा सकता है। अन्याय व्यक्ति के विरुद्ध ही नहीं हो रहा है, अन्याय पूरे समूह के, जाती या समुदाय या संप्रदाय के विरुध हो रहा है। यह बात बहुत से अध्ययनों से सिद्ध हो चुकी है कि जब समूह के मूल्य अपना लिए जाते हैं तो व्यक्तिगत मृत्यु का भी अर्थ मिल जाता है। यानी जितना-जितना व्यक्ति अपनी मृत्यु के बारे में सोचता है उतना ही वह अपनी जाति, अपनी संस्कृति और अपने धर्म के बुरे पहलु की ओर खिंचता चला जाता है।

व्यक्ति की अपनी मृत्यु शायद कभी भी समाप्त नहीं होती है, परन्तु आतंक का रास्ता चुनने के बाद जिस तनावपूर्ण स्थिति में आतंकवादियों को गुप्त रूप से रहना पड़ता है, उसमें व्यक्तिगत मूल्यों पर समूह के मूल्य प्राथमिकता प्राप्त कर लेते हैं। यहीं पर बड़े समूह का नियंत्रण एक छोटे संचालक गुट के हाथ में जाता है, जो लगभग सैनिक या अधिनाकवादी अंदाज में समूह पर केवल अपनी समरनीति ही नहीं थोपता, अपने नैतिक मूल्यों और विश्व दृष्टि को भी थोपते हैं।

आरम्भ में आतंकवादी गुट भले ही व्यापक समाज से अलग-थलग रहने पर मजबूर हों, लकिन अपनी विचारधारा के आधार पर वे अपने चारों ओर एक समर्थन मंडल तैयार करने में सफ़ल हो जाते हैं। समर्थकों का यह दायरा जितना व्यापक होता है, उतनी ही उनके आतंकवादी गुटों को मदद मिलती है। समर्थक भले ही हथियार उठाते हों लेकिन वे ऐसा कवच उपलब्ध कराते हैं जिससे काफ़ी हद तक आतंकवादी उस सत्तारूढ़ शक्ति से बचे रहते हैं, जिसके  ख़िलाफ़ उन्होंने युद्ध का ऐलान कर रखा होता है। प्रशासन और सेना में भी सेंध लगाने, उसमें घुन की तरह छिपकर खोखला करने, ख़ुफ़िया जानकारी देने की व्यवस्था, यही समर्थक मंडल करता है। अधिनायकवादी व्यवस्थाओं में सेना और आतंकवादियों के बीच मोर्चाबंदी बिलकुल स्पष्ट होती है लेकिन लोकतांत्रिक देशों में शासन व्यवस्था की विसंगतियों के कारण आतंवादियों और समर्थक मंडल को एक अराजकता की स्थिति पैदा करने में अधिक सफ़लता मिल जाती है।

आतंकवादी का मुख्य हथियार डर होता है। हिंसा के माध्यम से वह केवल उन लोगों में डर पैदा करता है जिनके मित्र या संबंधी मारे जाते हैं, बल्कि आतंक की लहरें काफ़ी दूर-दूर तक जाती हैं। आतंक का दायरा जितना बड़ा होता है, उतनी आतंकवादियों को सफ़लता मिलती है।

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